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कौन थे मनोज कुमार? भारतीय सिनेमा के इस दिग्गज ने छोड़ी अमिट छाप!

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मनोज कुमार का अद्वितीय सफर


नई दिल्ली, 4 अप्रैल। 87 वर्ष की आयु में, एक ऐसा अभिनेता हमें छोड़कर चला गया जिसने कई पीढ़ियों को अपने अभिनय से प्रभावित किया। उन्होंने एक ऐसी विरासत छोड़ी है, जिस पर न केवल फिल्म उद्योग, बल्कि पूरा भारत गर्व महसूस करता है। उनका काम 'पूरब' से लेकर 'पश्चिम' के लंदन तक गूंजा। ऐसे कलाकार विरले ही होते हैं जो सिल्वर स्क्रीन पर तीन दशकों तक लगातार ऐसी फिल्में प्रस्तुत करते हैं जो दर्शकों के दिलों में गहराई तक उतर जाती हैं। यह शख्सियत थी हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी।


गोस्वामी, दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। एक फिल्म में दिलीप के किरदार का नाम मनोज था, जिसके बाद उन्होंने अपना नाम मनोज रख लिया। देशभक्ति उनके रगों में बसी थी, इसलिए उन्होंने मां भारती को समर्पित कई बेहतरीन फिल्में बनाई, जिससे लोग उन्हें प्यार से 'भारत कुमार' कहने लगे। उन्हें अपने देश और संस्कृति पर गर्व था, और यह उनकी फिल्मों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता था।


उनका फिल्मी करियर 1957 में 'फैशन' से शुरू हुआ और यह 80 के दशक तक जारी रहा। कुछ ऐसी फिल्में थीं जिन्होंने मनोज कुमार के बहुआयामी व्यक्तित्व को दर्शाया। 1960 से 1980 के दशक के बीच, उन्होंने सात फिल्मों में ऐसे किरदार निभाए जो आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं।


उन सात फिल्मों में से एक 'शहीद' थी, जो 1965 में रिलीज हुई। यह फिल्म भगत सिंह के कालजयी किरदार को प्रस्तुत करती है और आजादी के दीवानों की कहानी कहती है।


1960 के दशक में दो और फिल्में आईं, जो सफलता की नई कहानी लिख गईं। एक थी उपकार (1967), जो प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से बनी, और दूसरी थी 'पत्थर के सनम'।


उपकार एक कल्ट फिल्म बन गई। गुलशन बावरा का गाना 'मेरे देश की धरती' उस समय भी हिट था और आज की पीढ़ी भी इसे उतनी ही भावनाओं के साथ गाती है। यह फिल्म शास्त्री जी के 'जय जवान जय किसान' के नारे पर आधारित थी।


1967 में ही 'पत्थर के सनम' रिलीज हुई, जिसमें एक व्यक्ति राजेश की कहानी थी, जो दो महिलाओं के बीच फंसा हुआ था।


इसके बाद 1970 में 'पूरब और पश्चिम' आई, जो भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म थी जिसमें एनआरआई का विषय उठाया गया। यह फिल्म एक पिता के दर्द को दर्शाती है, जो विदेश में कमाई करने के बाद अपनी बेटी में आए बदलाव को सहन नहीं कर पाता।


फिर आई 'शोर' (1972), जिसने पिता-पुत्र के रिश्तों को बुनते हुए दर्शकों को हंसाया और रुलाया। यह फिल्म उस साल की सुपरहिट रही।


1974 में 'रोटी, कपड़ा और मकान' ने समाज के ठेकेदारों को चुनौती दी और देश के युवा वर्ग की समस्याओं को उजागर किया। यह मल्टीस्टारर फिल्म भी दर्शकों को पसंद आई।


1981 में 'क्रांति' ने एक बार फिर मनोज कुमार की प्रतिभा को उजागर किया। इस फिल्म में देश के लिए बलिदान देने का जज्बा दर्शाया गया।


मनोज कुमार ने तीन दशकों तक अपने प्रशंसकों को बनाए रखा और हर वर्ग तक अपनी बात पहुंचाई। मिट्टी से प्रेम, संस्कृति पर गर्व और बड़ों का सम्मान सिखाने का उनका अनोखा तरीका आज भी लोगों को प्रेरित करता है।


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